पुराना है मौहल्ला , और हलकी सी शाम है |
सीसामऊ है नाम , और नाम बदनाम है ||
आधे में खाट , और आधे में दूकान है |
संकरी है सड़क , और गाड़ियां भी तमाम है ||
गलियों का जाल , और गालियों की गूँज है |
मुँह में मसाला , और दीवारें लाल थूक हैं ||
उलझे हैं तार , और बिजली फिर फरार है |
हर घर की खिड़की से निकला , एक कटिया वाला तार है ||
नाली है गहरी, और थैलियों से जाम है |
उसमे पड़ी एक गेंद, निकाले रुपया इनाम है ||
लौंडे छत पर चढ़े , पतंग खींचते हैं |
बाकी बचे जो छोटे , लंगड़ लिए खड़े है ||
तोतों के झुंड घर को , उड़ते ही जा रहे हैं |
कुछ थक रहे हैं थोड़ा, नीमों में आ रहे हैं ||
मंदिरों की घंटियाँ , और मस्जिद की नमाज़ है |
रात हो रही है , और मम्मी ने दी आवाज़ है ||
पानी चला गया है , मोटर अभी भी ऑन है |
छत को भी पिलाया पानी , गरमी से अब आराम है ||
ढ़ाल से वो आती , स्कूटर की जो आवाज़ है |
भाग कर हम जाते , पापा की वो जो आस है ||
साथ मिलकर खाते , के बी सी देखते हैं |
अब नींद आ रही है , जी हम लेटते है ||
आँख बंद कर के , फिर मौहल्ला देखते हैं |
सड़क देखते हैं , वो गली देखते हैं |
घर को देखते हैं , और खुद को देखते हैं |
खुद को देखते हैं , और खुश देखते हैं ||
- NK
Great piece! Makes me nostalgic.
ReplyDelete